- द्वारा Santosh Singh
- Jun 21, 2023
भारत का रूपया और अमेरिकी डॉलर का रिश्ता केवल दो मुद्राओं की ताक़त की तुलना भर नहीं है, बल्कि यह भारत की आर्थिक स्थिति, वैश्विक राजनीति और समय-समय पर लिए गए निर्णयों का भी आईना है। स्वतंत्रता से लेकर आज तक रुपया कई उतार-चढ़ाव से गुज़रा है। आइए इस सफ़र को विस्तार से समझें।
स्वतंत्रता का दौर (1947)
1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तो 1 रुपया = 1 डॉलर के बराबर माना जाता था। यह दर असल में एक स्थिर विनिमय दर थी, जो सोने से जुड़ी थी। उस दौर में भारत का विदेशी कर्ज़ बहुत कम था और व्यापार का संतुलन अपेक्षाकृत स्थिर था।
1966 का अवमूल्यन : पहला बड़ा झटका
स्वतंत्रता के बाद लगभग दो दशकों तक रुपया स्थिर रहा। लेकिन 1962 का चीन युद्ध, 1965 का पाकिस्तान युद्ध और लगातार बढ़ते आयात ने भारत के विदेशी मुद्रा भंडार को कमज़ोर कर दिया। नतीजा यह हुआ कि 1966 में भारत सरकार ने रुपये का अवमूल्यन किया और 1 डॉलर की कीमत ₹4.76 से बढ़कर ₹7.50 हो गई। यह रुपये के इतिहास का पहला बड़ा झटका था।
1971–1991 : तेल संकट और दबाव का दौर
1970 के दशक में अमेरिका ने डॉलर और सोने का संबंध खत्म कर दिया। इससे दुनिया भर की मुद्राएं डॉलर पर निर्भर होने लगीं। इसी समय पश्चिम एशिया में तेल संकट ने भारत की कमर तोड़ दी।
1985 तक डॉलर की कीमत ₹12–13 तक पहुंच गई।
1991 में भुगतान संतुलन का संकट आया, विदेशी मुद्रा भंडार केवल कुछ ही दिनों के आयात लायक बचा था। उस समय डॉलर लगभग ₹18 तक पहुंच गया।
1991 का उदारीकरण और नई राह
1991 में भारत ने आर्थिक सुधारों का रास्ता अपनाया। रुपये को धीरे-धीरे बाज़ार के हवाले कर दिया गया।
1993 में विनिमय दर पूरी तरह मार्केट आधारित हो गई।
2000 तक डॉलर की कीमत बढ़कर ₹45 तक पहुंच गई।
यह दौर भारतीय अर्थव्यवस्था के खुलने और विदेशी निवेश के आने का था, लेकिन साथ ही आयात बढ़ने से रुपया लगातार दबाव में रहा।
2000–2010 : मजबूती और कमजोरी का खेल
आईटी सेक्टर और सेवाओं के तेज़ी से बढ़ने के कारण 2007 में रुपया कुछ मजबूत हुआ और डॉलर की कीमत ₹39 तक आ गई। लेकिन 2008 की वैश्विक मंदी ने हालात पलट दिए और डॉलर फिर ₹50 तक पहुंच गया।
2010–2020 : लगातार गिरावट
इस दशक में रुपये की कमजोरी और साफ़ दिखने लगी।
2013 में अमेरिकी फेडरल रिज़र्व की नीतियों और भारत के चालू खाते के घाटे ने डॉलर को ₹68 तक पहुंचा दिया।
2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान डॉलर ₹75 तक हो गया।
2020–2025 : वैश्विक संकट और रुपये पर दबाव
रूस-यूक्रेन युद्ध, अमेरिकी ब्याज दरों में बढ़ोतरी और भारत के बढ़ते आयात ने रुपये की स्थिति और कमजोर कर दी।
2023–24 में डॉलर की कीमत ₹82–83 तक पहुंची।
2025 में डॉलर औसतन ₹84–85 पर बना हुआ है।
78 साल की कहानी : रूपया कहां से कहां पहुंचा
1947 : ₹1 = $1
1966 : ₹7.50 = $1
1991 : ₹18 = $1
2000 : ₹45 = $1
2025 : ₹84–85 = $1
यानी, स्वतंत्रता के बाद से अब तक रुपये ने डॉलर के मुकाबले अपनी लगभग 85 गुना कीमत खो दी है।
निष्कर्ष
रुपये और डॉलर का यह सफ़र बताता है कि एक देश की मुद्रा केवल अर्थव्यवस्था का पैमाना नहीं होती, बल्कि यह उस देश की राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक नीतियों और वैश्विक हालात का भी प्रतिबिंब है। रुपया जहां आज डॉलर के मुकाबले कमज़ोर है, वहीं भारत की अर्थव्यवस्था लगातार विकसित हो रही है। आने वाले समय में अगर निर्यात बढ़े, विदेशी निवेश स्थिर रहे और आत्मनिर्भरता पर ज़ोर दिया जाए, तो रुपया अपनी खोई हुई ताक़त कुछ हद तक वापस पा सकता है।