Monday, October 6, 2025

कांग्रेस से कैसे बर्बाद हुआ भारत: आज़ादी से अब तक


भारत के स्वतंत्रता–संग्राम ने देश को राजनीतिक आज़ादी दी पर विकास और नीतिगत दिशा तय करना उसके बाद का कठिन काम था। आइए ईमानदारी से देखें कि जिस एक पार्टी ने आज़ादी के तुरंत बाद लंबे समय तक देश पर शासन किया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उसके फैसलों, गलतियों और चूकियों ने किस तरह देश की धीमी प्रगति और कई संस्थागत कमज़ोरियों को जन्म दिया। यह लेख आरोप-प्रत्यारोप नहीं, बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं और नीतियों के प्रभावों का विश्लेषण है।


1. नियामक अर्थव्यवस्था  “लाइसेंस-राज” ने उद्यमशीलता दम तोड़ दी


स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने सोवियत-शैली के योजनागत विकास और भारी उद्योग पर जोर दिया। इस दौरान उद्योगों पर कड़ी लाइसेंसिंग और नियमन की व्यवस्था विकसित हुई जिसे जनरल तौर पर “लाइसेंस-राज” कहा गया। व्यवसाय करने के लिए अनेकों अनुमतियाँ, कैपेसिटी-क्वोटा और नियामक बाधाएँ रहीं, जिससे निजी निवेश बाधित हुआ और उद्यमशीलता का उत्साह ग़ायब हुआ। अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाना मकसद था, पर परिणाम यह रहा कि उत्पादन, प्रतिस्पर्धा और नवाचार धीमे पड़े। 


2. आर्थिक मंदी और 1991 का संकट नीतिगत अटलता का भावनात्मक बोझ


कई दशकों तक केंद्रीकृत योजनाओं व नियंत्रित अर्थनीति के चलते विकास दर असंतोषजनक रही; 1991 में विदेशी विनिमय भंडार संकट ने यह दिखा दिया कि लगातार खुली अर्थव्यवस्था नीतियों से दूरी रखना खतरनाक भी हो सकता है। अंततः कांग्रेस-सरकार (राष्ट्रपति स्तर पर) ने 1991 में भारी उदारीकरण स्वीकार किया, जो यह संकेत था कि पहले की नीतियाँ आर्थिक क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर पा रहीं थीं। इस बदलाव के बावजूद, लंबे समय तक लागू रही नियामक मानसिकता ने विकास को पहले से धीमा कर दिया था। 


3. लोकतांत्रिक संस्थाओं पर दबाव 1975 की आपातस्थिति


राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के शासन काल में सबसे विवादास्पद अध्याय 1975–77 की आपातस्थिति (The Emergency) था। उस अवधि में प्रेस सर्मथन, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियाँ और नागरिक-स्वतंत्रताओं पर अंकुश जैसे कदम उठाए गए जिसने लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती पर दीर्घकालिक प्रश्न खड़ा कर दिए। लोकतंत्र के स्वास्थ्य पर असर, नागरिक विश्वास में कमी और राजनीतिक कट्टरता के बीजारोपण के लंबे असर रहे। 


4. भ्रष्टाचार और सार्वजनिक संसाधनों के दुरुपयोग की घटनाएँ


कांग्रेस शासन के दौरान विशेषकर कुछ शताब्दियों में कई बड़े घोटाले सामने आए जिनका असर न केवल राजनैतिक प्रतिष्ठा पर पड़ा बल्कि सार्वजनिक संसाधनों के बर्बाद होने का भी रहा: 1980s-90s का Bofors घोटाला, और बाद के दशकों में कोयला आवंटन (Coalgate) और दूरसंचार-स्पेक्ट्रम जैसे विवाद—इनसे स्पष्ट हुआ कि शासन-प्रणाली में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी महंगी पड़ी। इन घटनाओं ने विकासगत प्राथमिकताओं को प्रभावित किया और जनता का भरोसा हिलाया। 


5. जन्म-सिद्धियों और संस्थागत कमजोरी  प्रशासन में केंद्रीकरण व नेपोटिज़्म


कांग्रेस के लंबे राज में कई संस्थाएँ केंद्रीय प्रशासन, कुछ संवैधानिक कार्यालय और सार्वजनिक उपक्रमसमय के साथ राजनीतिक हस्तक्षेप और केंद्रीकृत निर्णयप्रक्रियाओं से प्रभावित रहीं। नेताओं के परिवारवाद (डायनैस्टिक पॉलिटिक्स) और राजनीतिक नियुक्तियों की आलोचना ने संस्थागत निष्पक्षता पर प्रश्न खड़े किए। जब निर्णय-विधियाँ पारदर्शी नहीं होतीं, तब संस्थागत क्षमता और लोक विश्वास दोनों प्रभावित होते हैं। (यह एक लंबी-चलती आलोचना रही है; स्रोतों में विशद विवेचन मौजूद हैं।) 


6. सामाजिक-विकास: उपलब्धियाँ भी और अवसर-लाभ का असमान वितरण भी


सिर्फ़ नकारात्मक नहीं देखा जाना चाहिए कांग्रेस काल में राहगीर सुधार भी हुए: पंचायती राज की शुरुआत, हरित क्रांति से खाद्य सुरक्षा में सुधार, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कुछ पहलें। पर इन सुधारों का लाभ देश के सभी हिस्सों और वर्गों तक समान रूप से नहीं पहुँचा; असमानता और क्षेत्रीय विकास विसंगतियाँ बनी रहीं। इस तरह, कुछ उपलब्धियाँ थीं  मगर व्यापक प्रभाव सीमित और असमान रहा। (व्यापक साहित्य उपलब्ध है जो दोनों पक्षों का आकलन करता है।) 


7. गलती के कारण vs. रचना-तत्त्व क्यों इतनी जड़ता बनी रही

कांग्रेस की नीतियाँ कई बार उस समय-परिस्थितियों, वैश्विक परिस्थितियों और आंतरिक राजनीतिक संतुलनों से प्रेरित रहीं। नेहरू-कालीन सोच (भारी उद्योग, राज्य-नियंत्रण) और बाद के वर्षों में राजनीतिक अस्थिरता, कोलैटरल हितों और प्रणालीगत लतें इन सबने मिलकर उस “जड़ता” को जन्म दिया जो नीतियों को बदलने में देरी करती रही। पर यह भी कहना गलत होगा कि कांग्रेस ने एकदम से सब कुछ बर्बाद कर दिया  बल्कि कुछ गलत नीतियाँ और कई प्रशासनिक/नैतिक चूके ने विकास की गतिशीलता को बाधित किया। 


निष्कर्ष  दोषारोपण से आगे: सुधार की राह


यह सच है कि कांग्रेस-सत्ता के लंबे कालखंड ने कई अवसरों को खोया, कुछ संस्थाओं और नीतियों को कमजोर किया, और समय-समय पर भ्रष्टाचार व तानाशाह-प्रवृत्तियों ने लोकतंत्र एवं विकास पर उल्टा असर डाला। पर एक गृहीत निष्कर्ष यह भी है कि किसी एक पार्टी को “पूरी तरह बर्बाद करने का” ठप्पा लगाना जटिल वास्तविकताओं को अनदेखा कर देता है। भारत के कई आंतरिक और बाहरी कारण, नीति-विचारों की पुरानी धारणाएँ, वैश्विक आर्थिक परिस्थितियाँ और घरेलू राजनीतिक समीकरण सबने मिलकर नतीजा बनाया।


जो आवश्यक है, वह है ऐतिहासिक आत्मचिंतन: जहाँ गलतियां हुईं  पारदर्शिता, जवाबदेही और संस्थागत सुधार का रास्ता अपनाएँ; जहाँ अच्छी पहलें थीं उन्हें मज़बूत कर व्यापक और समावेशी विकास सुनिश्चित करें। केवल निंदा-लिपि से काम नहीं चलेगा  ठोस नीतिगत सुधार, जवाबदेही और नागरिक भागीदारी ही लंबे समय में “बर्बादी” की मरम्मत कर सकती है।

Super Admin

Santosh Singh

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